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पा॒क॒त्रा स्थ॑न देवा हृ॒त्सु जा॑नीथ॒ मर्त्य॑म् । उप॑ द्व॒युं चाद्व॑युं च वसवः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pākatrā sthana devā hṛtsu jānītha martyam | upa dvayuṁ cādvayuṁ ca vasavaḥ ||

पद पाठ

पा॒क॒ऽत्रा । स्थ॒न॒ । दे॒वाः॒ । हृ॒त्ऽसु । जा॒नी॒थ॒ । मर्त्य॑म् । उप॑ । द्व॒युम् । च॒ । अद्व॑युम् । च॒ । व॒स॒वः॒ ॥ ८.१८.१५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:18» मन्त्र:15 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:27» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:15


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शिव शंकर शर्मा

विद्वानों का स्वभाव दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवाः) हे विद्यादि दिव्यगुणभूषित (वसवः) सर्वत्र निवासकर्ता। सबके निवास देनेवाले विद्वान् जनों ! जिस कारण आप (पाकत्रा+स्थन) परिपक्व बुद्धि हैं अर्थात् आपकी बुद्धि सर्व कार्य्य में परिपक्व है, अतः (हृत्सु) अपने हृदयों में (द्वयुम्) जो द्विप्रकार युक्त अर्थात् कपटी है और जो (अद्वयुम्) कपटरहित निश्छल सत्यस्वभाव (मर्त्यम्) मनुष्य है, उन दोनों प्रकारों के मनुष्यों को आप (जानीथ) जानें ॥१५॥
भावार्थभाषाः - वे ही विद्वान् हैं, जो मनुष्यों की चेष्टा से उनकी हृदयस्थ बातें जान लेवें। कपटी और अकपटी जनों की मुखछवि भिन्न-२ होती है। अतः तत्त्ववित् पुरुष उनको शीघ्र जान लेते हैं ॥१५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वसवः, देवाः) हे व्यापक विद्वानों ! आप (पाकत्रा, स्थन) परिपक्व बुद्धिवाले हैं, इससे (द्वयुम्, अद्वयुम्, च) छलवाले और शुद्ध स्वभाववाले मनुष्य के (उप) पास जाकर (हृत्सु) अन्तःकरण में (मर्त्यम्) प्रत्येक मनुष्य को (जानीथ) पहिचानते हैं ॥१५॥
भावार्थभाषाः - हे परिपक्व बुद्धिवाले विद्वान् पुरुषो ! आप छली, कपटी तथा शुद्धस्वभावयुक्त, दोनों प्रकार के मनुष्यों को मिलाप होने पर भले प्रकार जान लेते हैं, अतएव उचित है कि पुरुष परिश्रम से विद्यासम्पन्न हों, जिससे वे मित्र-अमित्र अर्थात् भले-बुरे को पहचानकर दुष्ट मनुष्यों से हानि न उठावें ॥१५॥
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शिव शंकर शर्मा

विद्वत्स्वभावं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे देवाः=विद्यादिदिव्यगुणभूषिता विद्वांसः। हे वसवः=सर्वत्र निवासकर्त्तारः ! वासका वा यूयम्। पाकत्रा=पाकाः “प्रथमार्थे त्राप्रत्ययः” परिपक्वमतयः। स्थन=स्थ। तस्मात्। हृत्सु=निजहृदयेषु। द्वयुम्=द्विप्रकारयुक्तं कपटिनम्। च पुनः। अद्वयुम्=तद्विलक्षणं कापट्यरहितं सरलं कपटिनम्। सत्यस्वभावम्। मर्त्यम्=मनुष्यम्। उप=उपगम्य। जानीथ=तत्र समीपं गत्वा तत्स्वभावं वित्त ॥१५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (वसवः, देवाः) हे व्यापका विद्वांसः ! (पाकत्रा, स्थन) पक्वबुद्धयः स्थ यूयम् (द्वयुम्, अद्वयुम्, च) कपटिनमकपटिनं च (उप) उपेत्य (हृत्सु) हृदये (मर्त्यम्) जनम् (जानीथ) परिचिनुथ ॥१५॥